रानी ने हँसकर कहा—नहीं महाराज, यहाँ अन्याय मत कीजिए।
इस प्रकार की बातचीत में राजा-रानी की सुख की रात बीती।
सचमुच ही वह सुख की रात थी। जिस दिन नया जीवन मिलता है, जिस दिन अपने आपको भूला हुआ मनुष्य अपने को पहचान लेता है, जिस दिन राह भूला हुआ मनुष्य अपना रास्ता ठीक कर लेता है, और जिस दिन तत्त्वज्ञान का विकास होता है, वही दिन असल में बड़े सुख का है। आज हरिश्चन्द्र पत्नी की आँसू-भरी आँखों में स्वर्ग की पवित्रता देखकर और उसके अमृत-समान वाक्य सुनकर धन्य हुए हैं। आज उसी पुण्यात्मा रानी के खेद-भरे आँसुओं से, उसकी प्रेम-पूजा के नैवेद्य से और सच्ची सरलता से, वह अनर्थ कट गया है। वर्षा से बिगड़ा हुआ नीला आसमान शरदृतुरूपी सुन्दरी के प्यारे स्पर्श से साफ़ होकर पुण्य के तारों से जगमगा गया है। यह क्या राजा हरिश्चन्द्र के थोड़े सुख का दिन है?
इस प्रकार, राजा हरिश्चन्द्र ने बड़े सुख से कई वर्ष बिताये। यथासमय रानी शैव्या का पाँव भारी हुआ। राजमहल में आनन्द की लहरें उछलने लगीं।
समय आने पर रानी के एक सुन्दर पुत्र हुआ। कोशल-राज, कुमार के शुभ आनन्द के जलसे में मग्न होकर, आनन्द की लहरें लेने लगे। राजपुरोहित ने कुमार के जन्म-संस्कार की विधि से पूजा करा दी। बालक के रूप की ज्योति से सौरीघर जगमगा गया। ऐसा, जान पड़ने लगा मानो सूतिकागार की दीपावली तुरन्त जनमे हुए बालक की अङ्ग-शोभा के आगे फीकी पड़ गई। आशा की मोहिनी वीणा शैव्या के हृदय में बजने लगी। नये कुँवर के मुँह को देखकर शैव्या सब दुःख भूल गई।