धरती चमक जाय। महाराज! हम अब इन्द्रलोक का जायँगी। देखिए, आकाश से वह रथ उतर रहा है, इसे देवताओं की स्त्रियाँ हाँक रही हैं।
अचरज से चुप्पी साधे हुए राजा हरिश्चन्द्र ने देखा कि एकाएक वह देवताओं का रथ आ गया। शाप से छूटी हुई पाँचों सखियाँ राजा हरिश्चन्द्र के गले में खिले हुए पारिजात की माला डाल गई और कह गई कि इस पारिजात की सुगन्ध की तरह आपकी कीर्ति चारों ओर फैले।
यह देखकर राजा चकित रह गये। फिर वे सोचते-विचारते दल-बल-सहित अपनी राजधानी को लौट आये।
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राजा हरिश्चन्द्र सिंहासन पर बैठकर राज-काज कर रहे हैं, इतने में देहधारी क्रोध के समान विश्वामित्र वहाँ आ धमके। राजा, मन्त्री और दूसरे अनुचरों ने महर्षि के सामने सिर झुकाया, पर महर्षि का क्रोध ठण्ढा न हुआ। विश्वामित्र ने भौहें चढ़ाकर क्रोध से कहा—हरिश्चन्द्र! तुमने ऐश्वर्य के घमण्ड में फूलकर मेरे शाप को व्यर्थ कर दिया है। तुम्हारा इतना हौसला?
राजा हरिश्चन्द्र ने नम्रता से कहा—हे महर्षि! मैंने बिना जाने अपराध किया है। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।
महर्षि—तुम्हारा यह अपराध क्षमा करने योग्य नहीं। क्या राजा का यह काम है कि वह तपोवन में शिकार खेलने जाय? फिर, अपराध के कारण, लता से बँधकर जो अपने अपराध का दण्ड भोग रही थीं उनका विलाप सुनकर तुमने मेरे उस शाप को भी व्यर्थ कर दिया। यत्न से पाली हुई मेरी कुसुम-लताओं को तुमने काट दिया! तुम्हारा इतना बड़ा दिमाग़?