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आख्यान]
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शैव्या

है मानो पृथिवी में और कोई मनुष्य ही नहीं है। इस प्रकार सोचते-सोचते शैव्या की आँखों में आँसू भर आये।

शैव्या की आँखों में आँसू देखकर हरिश्चन्द्र सब समझ गये। उन्होंने कहा—"क्यों शैव्या, तुम रोती हो?" शैव्या ने कहा—नहीं, रोती तो नहीं हूँ किन्तु नाथ! आँसू ही तो इस समय हम लोगों का एक मात्र सहाय हैं। महाराज! अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठने में आपको कितना कष्ट होता था और आज वही आप धूल में सोये है! जिस राजकुमार को महलों में फूलों की शय्या पर नींद नहीं आती थी वह राजकुमार शोर-गुल में खुले मैदान में पत्थर के घाट पर सोया हुआ है! महाराज! मेरी छाती फट रही है। यह दृश्य मुझसे नहीं देखा जाता।

तब हरिश्चन्द्र ने कहा—रानी! रञ्ज मत करो। इस जगत् में सुख या दुःख कुछ भी नहीं है। जिसको हम लोग सुख का सामान समझते हैं शायद वह सुख न हो और हम लोग दुःख समझकर जिससे डरते हैं शायद वही सुख हो। लीलामय भगवान् के राज्य में यह बात पहले से सबकी समझ में नहीं आती। रानी! सुख-दुःख दोनों में ही भगवान की सत्य शुभ आज्ञा मौजूद है। पृथिवी पर जिस दिन मनुष्य इस बात को अच्छी तरह समझ जायगा कि—

सभी कर्म सुख-दुःख-मय तापर करो न ध्यान।
फल ईश्वर के हाथ है यह निश्चय जिय जान॥
एहि असार संसार में कारज करि निष्काम।
आत्मज्ञान उपजै जबहिं जीव होहिं सुखधाम॥

प्यारी! भ्रम के अँधेरे में हम लोगों को यह दिखाई नहीं देता, इसी से हम अन्धकार को भयानक मानते हैं। जिस दिन हृदय में आत्मज्ञान जाग उठेगा, जिस दिन आत्मज्ञान जगत् के ज्ञान में मिल