पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९८
[चौथा
आदर्श महिला

जायगा उस दिन देखोगी कि अब कुछ कष्ट नहीं है। इस संसार में चारों ओर केवल सुख और शान्ति का राज्य है—चारों ओर आनन्द और ख़ुशी की बहार है। रानी! शोक को छोड़ो। सभी हालतों में कर्त्तव्य को याद रखना चाहिए। हालत को—अवस्था को—मनुष्य नहीं बनाता। अच्छी तरह समझे रहो यह काम भगवान के ही हाथ में है। हम लोगों की जो यह रक्त-माँस से बनी देह है, उसकी खुशामद करते रहने से आत्मा की तृप्ति नहीं होती; आत्मा की तृप्ति तो कर्त्तव्य-मार्ग के पालन से होती है। जो भाग्यवान् उस मार्ग से चलते हैं वे ही इस संसार में सच्चे मार्ग के पहचाननेवाले हैं—उनको कुमार्ग से चलकर कष्ट भोगना नहीं पड़ेगा। चलो रानी, तुमको यह बात अच्छी तरह समझा दूँ।"

अब राजा मणिकर्णिका की दाहिनी तरफ़, मसान घाट की ओर बढ़े। सोये हुए रोहिताश्व को गोद में लेकर शैव्या राजा के पीछंपीछे जाने लगी।

धीरे-धीरे वे मसान घाट के पास पहुँचकर शिव के मन्दिर के चबूतरे पर बैठ गये। राजा ने जलती हुई चिता की ओर उँगली दिखाकर कहा—"रानी! संसारी देह का नतीजा देखती हो न? इस जलती चिता के भीतर की देह संसारी माया में मामूली कष्ट से व्याकुल हो जाती थी, किन्तु आज चिता की आग में भी वह शान्ति पा रही है।" रानी ने सोचा, अहा! मरघट कैसा पवित्र स्थान है! यह तो पृथिवी के कोलाहल से आकर शान्ति के मन्दिर में जाने का रास्ता है। मरघट में पड़े हुए और चिता में जलते हुए मुर्दों को देखकर रानी शैव्या समझ गईं कि संसार अनित्य है। वे माया के बन्धन को और मनुष्य के वृथा अहंकार के भेद को समझ गईं। राजा ने कहा—"रानी! ये जो लाशें देखती हो,