विश्वामित्र ने कहा—"हरिश्चन्द्र! अपने पाप से वंश का सत्यानाश करना कौन-सी राजनीति है?" हरिश्चन्द्र ने उकताकर पूछा—"तो आपकी क्या राय है?" विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र! तुम अपनी साध्वी पत्नी के दृष्टान्त पर चलो। प्रतिज्ञा को तोड़कर महापाप मत करो; बंश में कलङ्क मत लगाओ। अयोध्या का राजबंश पवित्रता की किरणों से सदा से उजला है। भाग्य मनुष्य का दास नहीं है, मनुष्य ही भाग्य का दास है। मनुष्य इस पृथिवी पर कर्मों का फल भोगता है। तुम भी अपने पूर्वजन्म का कर्म-फल भोगने के लिए पृथिवी पर आये हो। तुम वंश का नाश करने नहीं आये हो—यह अधिकार तुम्हें नहीं है।
हरिश्चन्द्र ने ऋषि की इस बात को सुनकर व्याकुल हृदय से कहा—"मुनिवर! आप ज़रा ठहरिए। मैं भी पत्नी की तरह अपने को बेचकर आपको दक्षिणा देता हूँ।" फिर वे पास ही, दास बिकने के अड्डे पर जाकर बोले—"हे काशीवासी ब्राह्मणों! अगर आप लोगों में से किसी को दास की ज़रूरत हो तो पाँच सौ मोहरें देकर काम करने में होशियार इस हट्टे-कट्टे दास को मोल ले लीजिए।" किसी को आते न देखकर हरिश्चन्द्र ने फिर कहा—"हे काशीवासी क्षत्रियों! अगर आप लोगों में से किसी को दास की ज़रूरत हो तो पाँच सौ मोहरों के बदले युद्ध में चतुर इस दास को ख़रीद लीजिए।" इस बार भी किसी को न आते देखकर हरिश्चन्द्र सोचने लगे कि क्या मुझे किसी नीच जाति की सेवकाई करनी पड़ेगी। फिर उन्होंने सोचा कि जब सेवकाई ही करनी है तब फिर मान-अभिमान क्या! उन्होंने फिर एक बार ज़ोर से कहा—हे काशीवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चाण्डालगण! अगर आप लोगों में से किसी को दास की ज़रूरत हो तो सोने की पाँच सौ मुद्रा देकर मुझे ख़रीद लीजिए।