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आख्यान]
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शैव्या


हरिश्चन्द्र की बात सुनकर एक भद्दे रूपवाला मरघट का डोम वहाँ आकर बोला—"कौन है? मुझे चाहिए दास।" हरिश्चन्द्र ने मरघट के डोम को देखकर सोचा—इसके हाथ मुझे बिकना होगा; मेरे भाग्य में यह बात भी लिखी थी! जो हो, अब देरी करना ठीक नहीं। यहाँ कोई और ख़रीदार भी तो नहीं है इसलिए मुझे इसी के हाथ बिकना पड़ेगा। राजा ने डोम की ओर बढ़कर कहा—चाण्डाल! तुम मुझे ख़रीदोगे? अच्छा लाओ, पाँच सौ मोहरें दो।

चाण्डाल से पाँच सौ मोहरें लेकर हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र को दे दीं। विश्वामित्र ने मोहरें पाकर कहा—"हरिश्चन्द्र! मैंने तुम्हारी मंजूर की हुई दक्षिणा की रक़म पाई। अब मैं जाता हूँ। समय पर फिर मुझसे भेंट होगी।" हरिश्चन्द्र ने प्रणाम किया।

विश्वामित्र जब वहाँ से चले गये तब हरिश्चन्द्र ने डोम से पूछा कि मुझे क्या काम करना पड़ेगा। उसने कहा—"मैं मसान-घाट पर लाश जलाने का कर वसूल करता हूँ। तुमको भी यही करना होगा। फिर उसने हरिश्चन्द्र से पूछा—"क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है? मैंने जो काम बताया, उसको कर तो सकोगे?" हरिश्चन्द्र ने कहा—"मेरा नाम हरिश्चन्द्र है। मैं तुम्हारा काम करने की जी-जान से कोशिश करूँगा। धर्म को बचाने के लिए जब मैंने तुम्हारी सेवकाई करना मंजूर कर लिया है तब मुझसे तुम्हारा कुछ नुक़सान नहीं होगा।" चाण्डाल ने कहा—"देखो भाई! तुम्हारा नाम तो बड़ा टेढ़ा-मेढ़ा मालूम पड़ता है। मैं तो तुमको 'हरिया' कहकर ही पुकारूँगा।" हरिश्चन्द्र ने कहा—"क्या हर्ज है, यही कहकर पुकारना।" डोम के सेवक होकर हरिश्चन्द्र मसान-घाट पर मुर्दों का कर वसूल करने और सूअर, चराने आदि का काम करने लगे।

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