सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आख्यान]
२१३
शैव्या

की बातें सोच रहा है। वह सोचता है—क्या मैं सचमुच किसी समय। राजा था? क्या मेरे एक रानी और एक लड़का भी था? क्या सैकड़ों दास-दासियों ने मेरी सेवा की है? क्या मेरे पास अपार धन था? क्या मैं समुद्रों-समेत पृथिवी का कभी स्वामी था? क्या यह सब सच है? मालूम तो नहीं होता। किसी दिन खुर्राटे की नींद में सपना देखा होगा! नहीं तो कहाँ राजपाट और कहाँ यह काशी का मरघट! ऐसा भी हो सकता है? वह क्या है? आकाश की गोद में अँधेरे के बीच किसी ऋषि की मूर्ति तो नहीं है? अरे! यह मूर्ति तो पहचानी हुई सी जान पड़ती है! हाँ, ये तो विश्वामित्र ऋषि हैं। मैंने इन्हीं को पृथिवी दान की है न? हाय रे! मरघट के डोम ने पृथिवी दान की है, यह कभी हो सकता है? यह सब बिगड़े हुए दिमाग़ की बकवाद है। हृदय! क्यों अशान्त होते हो? तुम तो मरघट के डोम हो, तुम तो—डोमों के सरदार कल्लू के दास—हरिया डोम हो।

पहले से ही आकाश में मेघ छा रहे थे। अब बड़े ज़ोर से वर्षा होने लगी। बिजली के बार-बार चमकने और कड़कने से ऐसा मालूम होता था मानो आज प्रलय होनेवाला है!

इतने में एक स्त्री एक लड़के की लाश को छाती से लगाये उस मरघट में आई। विकट अँधेरा है, कुछ भी दिखाई नहीं देता। बीच-बीच में बिजली की चमक से अँधेरा और भी गहरा होता जाता है। मरघट के डोम ने सोचा—जान पड़ता है किसी के घर का दीपक बुझ गया है! किसी की तकदीर फूट गई है! इस काल-रात्रि में यह कौन अकेला आ रहा है? उसकी छाती से सटा हुआ वह क्या है? क्या किसी लड़के की लाश है?

वह स्त्री एकाएक ठहर गई। अँधेरे में रास्ता नहीं दिखाई देता। इस भयानक आँधी-पानी में यहाँ कोई आदमी भी है? कौन मुझे