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आख्यान]
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चिन्ता

फूल खिला है वे न जाने कितने सुन्दर हैं! पक्षियों के गीत से मग्न होने पर वह सोचती—मीठे स्वर से पक्षी जिनकी स्तुति कर रहे हैं वे न जाने कितने महान्, कितने बड़े हैं! नदी के किनारे बैठकर वह सोचती—जगत् को बनानेवाले की कितनी अपार करुणा है; सबेरे की बयार की शीतलता से पुलकित होकर सोचती—अहा! विधाता का दान अनन्त है! इस प्रकार सोचते-सोचते राजकुमारी सुध-बुध भूल जाती। विधाता के पवित्र आशीर्वाद को पाकर बालिका नया उत्साह पा जाती।

सुख की गृहस्थी में जन्म लेने से बालक कुछ आराम-तलब और खिलाड़ी होते हैं किन्तु राजकुमारी चिन्ता मा-बाप की इकलौती बेटी होने पर भी व्रत-नियम में अपने को भूल जानेवाली योगिनी की भाँति रहती थी। उसके बचपन का यह अनोखा जीवन उसको भविष्यत् के रास्ते में चलाने के लिए तैयार करता था। चिन्ता सोचती—सुख या दुःख दुनिया में कुछ नहीं है। भ्रम में पड़े हुए मनुष्य सुख में अपने को भूल जाते हैं और दुःख में विकल होकर कर्तव्य के रास्ते से हट जाते हैं। मैं राजकन्या हूँ, सैकड़ों दास-दासियाँ मेरी आज्ञा मानने को तैयार हैं; किन्तु मैं आप क्या कुछ नहीं कर सकता? काम करने में ही तो सञ्चा बड़प्पन है। आलसी रहकर कोई बड़ा नहीं बन सकता! मनुष्य को बड़ा बनने के लिए अपने ऊपर भरोसा करना सीखना चाहिए। दुःख या कष्ट पड़ने पर, उसे भगवान् की लीला समझनी चाहिए। आत्म-विश्वास की अथक शक्ति के सहारे दुःस्त्र के बन्धन से छूटना चाहिए। इसलिए मैं अपना काम अपने ही हाथ से करूँगी। सोच-विचारकर चिन्ता अपना सब काम आप ही किया करती। बालिका के इस ढंग को देखकर रानी कुछ कहती तो चिन्ता उत्तर देवी—मा! इस कर्मभूमि धरती में