देखकर तृप्त हुँगी। आपको देखकर मैं सारा कष्ट भूल जाऊँगी। प्रभो! आप मुझे छोड़कर वन को न जायँ।
रामचन्द्र ने, वन जाने को तैयार, सीता देवी को वनचर राक्षस आदि के उपद्रव की बातें बताकर रोकना चाहा; किन्तु यह नहीं सोचा कि सीता क्षत्राणी हैं, वे राजाओं के भयदायक शिव-धनुष तोड़नेवाले की सहधर्मिणी हैं, वे ताड़का को मारनेवाले की वीर-पत्नी हैं, वे क्षत्रिय-विध्वंसी परशुराम का गर्व हरनेवाले की धर्म-पत्नी हैं।
सीता ने कहा---प्राणनाथ! आपने वीरता कं प्रण में जयी होकर मुझे पाया है। आज आपके मुँह से भीरुता की ऐसी-ऐसी बाते क्यों निकलती हैं? आप वीर हैं, पुरुष हैं, शास्त्रों के जाननेवाले हैं,--क्या आप मेरी रक्षा नहीं कर सकेंगे? आप मुझे राक्षसों का डर क्यों दिखाते हैं। आप ही ने तो, कुमार अवस्था में, ताड़का आदि का नाश करके विश्वामित्र का यज्ञ पूर्ण कराया था! आप ही ने तो शिव-धनुष तोड़कर मुझे प्रात किया था! आप ही ने तो गर्वीले परशुराम का कुठार व्यर्थ किया था! मैं राक्षस से डरूँगी? हे पुरुष-रत्न मुझे यह डर मत दिखाओ। स्त्री की रक्षा करना स्वामी का मुख्य कर्तव्य है, यह भूल मत जाओ।
अब रामचन्द्र सीता को साथ लेने में आना-कानी नहीं कर सके। भ्रातृ-भक्त लक्ष्मण भी रामचन्द्र के साथ वन जाने को तैयार हुए। सुमित्राजी लक्ष्मण के वन जाने का समाचार सुनकर तनिक भी दुखित नहीं हुई। उन्होंने राम के हाथ में लक्ष्मण को सौंपकर कहा-बेटा लक्ष्मण! राम को पिता-तुल्य, सीता देवी को मेरे समान और घोर वन-भूमि को अयोध्या समझना। *
- रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्।
अयोध्यामटवीं विद्धि गच्छ तात यथासुखम्॥