पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२६

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आख्यान ]
१५
सीता

पक्के रामचन्द्र के कर्तव्यपरायण हृदय को प्रोति के शान्त शीतल जल से सींचने के लिए तत्पर हुई। सीता और लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र वनवास का क्लेश भूलकर प्रकृति का खुला सौन्दये देख पुलकित हुए । वनदेवी भौरों से गुञ्जायमान पुष्पों से शोभित हरे-हरे पत्ते हिलाकर रामचन्द्र की अभ्यर्थना करने लगी। रामचन्द्र गङ्गा का सुन्दर दृश्य देखकर पुलकित हो गये।

वहाँ से वे चित्रकूट गये । पत्थर के शरीरवाला चित्रकूट मानो सूर्यवंश-कमलिनी सीता देवी को ढाढ़स देने के लिए तैयार हुआ। वह अपने शिखर के जङ्गल-वृक्षों का श्यामल सौन्दर्य, वन-लता की कमनीयता और सिर चूमनेवाली मेघमाला का मोहन दृश्य लेकर मानो उन लोगों का स्वागत करने लगा।

चित्रकूट के ऊपर से बहनेवाले झरने मधुर कलरव से सीता देवी को सान्त्वना देने की चेष्टा करने लगे। सीताजी चित्रकूट पर रामचन्द्र का आदर और प्यार पाकर मानो सारे दुःखों को भूल गई। रामचन्द्र के साहचर्य, लक्ष्मण की भक्ति और प्रकृति के उस बिना माँगे हुए उपहार को पाकर सीता देवी अयोध्या का सुख भूल गई।

इधर रामचन्द्र आदि के वन जाने से अयोध्यावासी बहुत दुःखित हुए । राजा दशरथ ने तो पुत्र-शोक से प्राण ही छोड़ दिया। इस लमय भरत राजधानी में न थे। वे भाई शत्रुन के साथ ननिहाल गये थे। पिता के मरने का समाचार पाकर भरत अयोध्या में आये। वे पिता का क्रिया-कर्म करके रामचन्द्र को लौटा लाने के लिए राजधानी से रवाना हुए।

उस समय रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण-सहित, चित्रकूट पर थे । भरत रामचन्द्रजी के पैरों में गिरकर, माता के इस ओछे काम