लिए, क्षमा माँगने लगे । भरतजी, यह सोचकर कि मेरी माता ने ओछी बुद्धि के कारण ऐसा अनर्थ किया है, बहुत लज्जित होते हुए रामचन्द्र को अयोध्या लोटा ले जाने का उपाय करने लगे। किन्तु रामचन्द्र ने किसी तरह लौटना मंजूर नहीं किया। लाचार भरत रामचन्द्रजी की खड़ाऊँ सिरपर रखकर के लोटे और अयोध्या के बाहर नन्दीग्राम में खड़ाऊँ को राजसिंहासन पर थापकर राज-काज चलाने लगे।
भरत के लौट जाने पर रामचन्द्र दण्डक वन को गये । सती- शिरामणि सीता निराश प्राणपति को ढाढ़स देने के लिए वन-फूलों से अपना सिंगार करती। आखेट से थके हुए रामचन्द्र का पसीना सीता के डुलाये हुए पंखे से सूख जाता। कलकल' शब्द करनेवाली नदी के दोनों किनारे, प्रकृति के भोलेभालं बच्चे की तरह, विचरा करते। कभी-कभी स्वामी की सोहागिनी अपना जूड़ा जंगली फूलों से सजाकर जब वनदेवी के समान शोभा पाती तब ऐसा जान पड़ता कि अयोध्या की राजलक्ष्मी ने दण्डक वन में एक नया राज्य फैलाया है। लक्ष्मण ने वहाँ, रहने-योग्य एक स्थान चुनकर, कुटी बनाई। सीता देवी स्वामी के साथ उसी में रहने लगी। लक्ष्मण रात को उस कुटी के सामने पहरा दिया करते थे।
सीता, प्रकृति के लाडले शिशु की तरह. सीधे स्वभाव की थीं। गोदावरी का तट उनकी क्रीड़ा का आँगन हो गया। उनकी कुटी के चारों ओर बहुतसे जङ्गली फूल खिलकर उस स्थान को सुगन्धित कर देते थे। कोयल की कुहुक सुनकर सीता की नींद टूटती। जंगली जानवर उनकी सखी बन गये थे। ओस से भीगे हुए पुष्प-दल शस्य के झुके हुए गुच्छे, काँस के फूलों से शोभायमान गोदावरी-तट सीता देवी को अनेक प्रकार से तृप्त करते थे।