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[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

पतलीसी किरण से हाट-बाट में उजेला हुआ। लक्ष्मी ने कहा—श्रीवत्स! चाँदनी हो गई। अब तुम लोगों को रास्ता दिखाई देता है। अब मैं जाती हूँ, किन्तु बेटा! सामने विकट उलझन है, सावधान रहना।

बस लक्ष्मी ग़ायब हो गई।

राजा और रानी ने उस लम्बे-चौड़े मैदान में जाते-जाते देखा कि सामने एक डरावनी नदी तरंगें मार रही है।

पार होने का कोई उपाय न देखकर राजा और रानी उदास मन से नदी-किनारे खड़े हैं। इतने में एक बूढ़ा-सा मल्लाह वहाँ झाँझरी नाव ले आया। राजा ने कहा—मल्लाह! क्या तुम हम लोगों को पार उतार दोगे?

मल्लाह—तुम, इस नदी के पार जाने की हिम्मत करते हो?

राजा—क्यों? क्या यह बात अनहोनी है? नदी पार तो सभी होते हैं। इसमें हिम्मत करने की बात ही क्या है?

"नदी पार तो सभी होते हैं, किन्तु भाग्य की नदी को क्या सब कोई पार कर सकते हैं?" यह कहकर मल्लाह गीत गाने लगा—'करम-गति टारेहु नाहिं टरे।'

राजा ने कहा—अजी मल्लाह! तुम तो बड़े ज्ञानी जँचते हो। हम लोग भटके हुए हैं, हर घड़ी सब बातें समझ में नहीं आतीं। इसी से ग़ोते खाते हैं।

मल्लाह—ग़ोते तो खा ही रहे हो। अब सोच काहे का? अगर नदी पार जाना चाहो तो तुरन्त आओ।

रत्नों की गठरी लिये हुए रानी के साथ राजा आगे बढ़े।

मल्लाह ने कहा—मेरी नाव टूटी हुई है। मुश्किल से दो