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आख्यान]
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चिन्ता

प्रीति लाया था कर्मभूमि में उसी प्रीति को घटा-बढ़ाकर वह साथ ले जायगा। देवी! फिर इतना अभिमान और इतना संकोच क्यों? जगत्-पिता ने मुझे यह परिश्रमी शरीर और मन दिया है। यहाँ मेहनत करके जीविका चलाने में दोष नहीं है, बल्कि इसी में बड़प्पन है।

रानी ने आँसू पोंछकर कहा—राजन्! मैं सब समझती हूँ। फिर भी महाराज, मन नहीं मानता। हृदय व्याकुल होकर शोक की धारा बहाता है। क्षमा कीजिए महाराज! भूखों भले ही मर जाऊँगी, परन्तु आपको इतना छोटा काम न करने दूँगी।

राजा—रानी! उतावली मत हो। इससे मुझको कुछ कष्ट नहीं होगा। मैं तुमको पाकर शक्ति पा गया हूँ। मेरे हृदय में बड़ा बल आ गया है। देवी! तुम्हारे प्रेम का कभी न टूटनेवाला कवच मुझे सदा जितावेगा, तुम बेफ़िक्र रहो।

रानी को समझा-बुझाकर राजा बूढ़े लकड़हारे के साथ वन में गये। वहाँ देखा कि वन में बहुतसे चन्दन के वृक्ष लगे हैं। राजा चन्दन की कुछ लकड़ियाँ चुनकर बाज़ार में ले जाते और साथ के लकड़हारों से अधिक दाम पाते। इस तरह कुछ दिन में राजा के पास कुछ रक़म जमा हो गई।

एकदिन रानी ने कहा—"महाराज! आपने लकड़ियाँ बेचकर जो पैसा पाया है वह ज़रूरी ख़र्च से कुछ बच गया है। आपकी आज्ञा हो तो उससे एक दिन सब लकड़हारों और उनकी स्त्रियों को भोजन कराऊँ।" राजा ने खुशी से मंज़ूर कर लिया।

रानी ने राजा से कुल सामान मँगवाया। राजा सब तैयारी करके लकड़हारों को मय जन-बच्चों के न्योता दे आये। लकड़हारों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं है। अब तक वे रानी को केवल 'माँजी-