पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ आख्यान ]
१७
सीता

इस प्रकार, सीता ने प्रकृति के साथ हेलमेल कर लिया। प्रकृति देवी ने भी, मानो सुन्दरता के सैकड़ों उपहार देकर, सीता देवी के सुख की गृहस्थी सजा दी। सीता वन में विचरनेवाली हरिणियों का आदर करतीं; मीठी बोलीवाले कितने ही पक्षी उनकी कुटी के पास वृक्ष की डालियों पर बैठकर चहकते; सौन्दर्य में भूली हुई सीता अपनापा भुलाकर उनके गले से अपना गला मिलाकर गीत गाने लगतीं। वन-देवी की वन-वीणा का स्वर, माना किसी अनिश्चित मायालोक से आकर, सीता को पुलकित कर देता। सीता कभी गोदा- वरी के कमल-वन में देवाङ्गनाओं की जल-केलि देखतीं; कभी स्वामी के साथ पहाड़ पर बैठकर कितनी ही कहानियाँ सुनतीं; कभी लताओं में भौरों की गुज्जार सुनकर पुलकित होतीं और कभी मुनि-कन्याओं के साथ गप-शप किया करतीं। इस प्रकार उन्होंने एक सुख की गृहस्थी बना ली।

इस नई गृहस्थी में आकर सीता देवी अयोध्या का राज-सुख भूल गईं। क्यों न भूल जातीं? सैकड़ों प्रकार की खटपट से भरा हुआ, तरह-तरह के स्वार्थों से दूषित, सीमा-बद्ध राज-महल क्या सदा शान्तिमय उदार असीम वनभूमि से घटिया नहीं है? सुगन्ध पूर्ण सुन्दर जंगली फूल, प्रकृति से शिक्षा पाये हुए पक्षियों के कलरव और पवित्र स्वभाववाली तापस-कुमारियों के वहनपा ने उनको वनवास का क्लेश भुला दिया।

किन्तु सीता का यह सुख बहुत दिनों तक नहीं रहा। विनोद के इस रङ्ग-मञ्च पर दुःख का दृश्य अचानक आ जमा।

रावण की बहन शूर्पनखा दण्डक वन में रहती थी। खर-दूषण के अधीन चौदह हज़ार राक्षस भी वहाँ निवास करते थे। एक दिन शूर्पनखा वन में घूमती हुई रामचन्द्र के आश्रम के पास आ पहुँची