जीवन-प्रदीप बुझाकर, विजय-पताका को फहराते हुए, निरपराध स्त्री को निकाल देने का दण्ड ही क्या मनुष्यत्व या अपमान का बदला है? आर्य्यपुत्र! आप मुझे कहते हैं कि "तुम मुझे प्राण से भी प्यारी हो!" किन्तु जो प्राण से भी प्यारी हो उसके साथ क्या ऐसा सलूक ही उसके योग्य आदर है? नीति की जो बातें आपने कहीं वे आपके जैसे स्थिर-बुद्धि मनुष्य के योग्य कभी नहीं! जो मनुष्य को सत्पथ पर चलाती है वही अगर नीति है तो आप पति-प्राणाधारा धर्म-पत्नी को छोड़कर नीति की मर्यादा कैसे रक्खेंगे—यह मेरी समझ में नहीं आता। मुझे रावण ने बुरी दृष्टि से देखा था और उस पापात्मा ने मुझे छू भी लिया था, किन्तु इसमें मेरा क्या अपराध है? राहु के ग्रास से छूटने पर सूर्यदेव की वन्दना करने के लिए क्या लाखों-करोड़ों हाथ नहीं उठते? या सर्प से छुआ हुआ वन-फूल क्या देवता के चरणों पर चढ़ने के योग्य नहीं होता? आर्य्य! मैं साधारण स्त्री हूँ अपना पक्ष समर्थन करने की मुझ में शक्ति नहीं है। आपने मुझे जो कुछ सिखाया है, उससे मैं यही जानती हूँ कि मेरा मन-रूपी भौंरा आपके चरण-कमल का रस पीने को लालायित है। हृदय आपका सदा भक्त है। दुरात्मा के बाहुबल में बाधा देने के लिए भला कोमल-स्वभाववाली अबला में शक्ति कहाँ? किन्तु अपने हृदय पर तो मेरा पूरा अधिकार है, वह मेरे कहने में है। पापी की क्या मजाल थी कि उस पवित्र हृदय को स्पर्श करता? आर्य्यपुत्र! विवाह के दिन की बात याद करो; जिस दिन आप धनुष तोड़कर उपस्थित जनता की उत्सुकता-पूर्ण दृष्टि में एक अपूर्व जगत् के नवीन देवता से जान पड़े थे, जिस दिन प्रथम मिलन के अवसर पर प्रेम से हम दोनों अपने को भूल गये थे, उस समय की बात को याद करो। आप उस हृदय पर व्यर्थ सन्देह क्यों करते हैं? उस हृदय पर अपवित्रता
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