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आख्यान]
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सीता

की स्याही भूल से भी नहीं लगी है। वह हृदय-देवता का पुण्य-पीठ है; वह असुर का क्रीड़ा-कानन नहीं हो सकता।

यह कहकर सीता ने रामचन्द्र के मुख की ओर टकटकी लगाई। उन्होंने देखा कि इतने पर भी श्रीराम के हृदय से सन्देह दूर नहीं हुआ। तब उन्होंने गिड़गिड़ाकर लक्ष्मण से कहा—देवर लक्ष्मण! जिसके लिए तुमने इतना कष्ट सहा है, उस चिर-दुःखिनी के लिए थोड़ासा कष्ट और सही। जब स्वामी इस शरीर से घृणा दिखा रहे हैं तब इस शरीर की आवश्यकता ही क्या है? लक्ष्मण! चिता बना दो। तुम लोगों के पवित्र मुँह को देखते-देखते मैं चिता पर चढ़कर इस घृणित शरीर को छोड़ दूँगी।

लक्ष्मण ने रोष-भरी दृष्टि से रामचन्द्र की ओर देखा। उन्होंने देखा कि वे नीचा सिर किये चुपचाप बैठे हैं। सीता देवी की उस बात में रामचन्द्र की असम्मति न देखकर लक्ष्मण चिता बनाने की तैयारी करने लगे।

तुरन्त चिता तैयार हो गई। प्यारे के विरह से व्याकुल जानकी, समय पलटने पर, दुर्बल देह-लता को अनेक प्रकार के आभूषणों से सजाकर पति के पास आई थीं। उन्होंने उसी वेष में आँखें नीची किये हुए रामचन्द्र को प्रणाम करके, प्रदक्षिणा के अन्त में, अग्नि-कुण्ड के पास जाकर और हाथ जोड़कर निवेदन किया—

मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नसंगे यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि।
तदिह दह ममाङ्ग पावनं पावकेदं सुकृतदुरितभाजां त्वं हि कर्मैकसाक्षी॥

इतनी देर तक रामचन्द्र चुपचाप बैठे थे। उन्होंने देखा कि आँखों के सामने ही सीता की देह-लता गायब हो गई। डबडबाई हुई आँखों से रामचन्द्र ने विलाप करते-करते क्रोध से धनुष पर बाण चढ़ाकर