—भगवन् अग्निदेव! तुम मेरी सती जानकी को लौटा दो। तुम समझ लो कि सीता बिना राम का अस्तित्व नहीं है। मैंने बिना सोचे-विचारे प्यारी को कटुवचन कहा है किन्तु मेरी प्यारी सतियों में आदर्श है। मेरी प्राणप्यारी सीता को तुमने ले लिया है। अगर तुम उसको नहीं लौटाओगे तो यह देखो, तुम्हारा नाश करने के लिए मैं बाण चढ़ाता हूँ। शक्ति हो तो सँभालो।
रामचन्द्र की यह बात समाप्त होते न होते लाल वस्त्र-धारी अग्निदेव सीता देवी को गोद में लेकर चिता से निकले और तुरन्त रामचन्द्र के निकट जाकर बोले—रामचन्द्र! सीता को ग्रहण कीजिए। चिर-पूज्या माता के चरण-स्पर्श से मेरा ज्वालामय हृदय आज सुशीतल हुआ है! हे रामचन्द्र! सीताजी पवित्रता की गङ्गाधारा हैं, ये सदा पवित्र हैं। इनके विषय में सन्देह न कीजिए।
एक-एक करके, सब देवताओं ने आकर रामचन्द्र से सीता के सतीत्व की बात कही।
रामचन्द्र ने उपस्थित अग्नि आदि देवताओं से कहा—हे देवताओ! मैं जानता हूँ कि सीता देवी आदर्श-चरित्रवाली हैं; गङ्गाजल में अपवित्रता रह सकती है, और सूर्य-किरणों में भी मलिनता हो सकती है किन्तु सीता देवी में अपवित्रता का होना बिलकुल असम्भव है। मैंने केवल सीता देवी के सतीत्व की बात को जगद्-विख्यात करने ही के लिए यह परीक्षा की थी।
आशीर्वाद देकर देवता लोग स्वर्ग को चले गये।
रामचन्द्र ने तुरंत लंका की राजलक्ष्मी विभीषण को सौंपकर सुग्रीव, लक्ष्मण, विभीषण और सीता-सहित पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या की ओर यात्रा की।