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अयोध्या की राजलक्ष्मी रामचन्द्र के सिंहासन पर बैठने से और चमक उठी-प्रजा सब दुःखों को भूल गई।
रामचन्द्र सीता-सहित विश्रामागार में सुखदायक बातें करके दिन बिताने लगे। वनवास के क्लेश के बाद यद्यपि अयोध्या के राजपाट ने उनके जीवन को सब तरह से मुग्ध कर लिया तथापि सीता देवी शीतल छायावाले तपोवन के माधुर्य को और मुनि-कन्याओं के उस पवित्र संगसुख को भूल नहीं सकीं। इससे सीताजी ने आदर से रामचन्द्र के निकट अपने जी का अभिलाष प्रकट किया।
उस समय सीताजी के पाँच महीने का गर्भ था। रामचन्द्र ने सीता देवी की बात से सन्तुष्ट होकर कहा—"जल्द इसका बन्दोबस्त कराय देता हूँ।" सीता देवी ने प्रसन्न-चित्त से कहा—"आर्यपुत्र! आपका स्नेह अटूट है। मैं नहीं समझती थी कि आप इस अवस्था में भी मेरी इस बात को मान लेंगे।" किन्तु यह वासना ही सीता के लिए काल-स्वरूप हुई। विषम भविष्यत् ने तसल्ली के बहाने उनके सर्वनाश का रास्ता खोल दिया।
बहुतेरी बातें होने पर सीताजी सो गईं। इतने में रामचन्द्र ने अपने विश्वासी दूत दुर्मुख से सुना कि अयोध्या की प्रजा, रावण के घर में रहने के कारण, सीताजी पर कलङ्क लगाती है।
आदर्श राजा रामचन्द्र के हृदय का भाव बदल गया। जो सीता उनको प्राण से प्यारी थीं, जो सतीत्व के प्रभाव से देवताओं की भी पूजा पाने योग्य थीं, जो अयोध्या की राज-लक्ष्मी थीं, और जो उनके जीवन की सुखशान्ति थीं, उन्होंने उनको भी प्रजा-रञ्जन के लिए त्याग देने का संकल्प किया। उन्होंने सोचा कि सीताजी ने तपोवन देखने