का जो अभिलाष प्रकट किया है उसी के बहाने उनको महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ देना चाहिए।
रामचन्द्र ने भाइयों को बुलाकर सीता के सम्बन्ध में अयोध्या की प्रजा की राय सुनाते हुए अपना विचार प्रकट किया कि मैं सीताजी को क्या करना चाहता हूँ। लक्ष्मण ने उनको बहुत समझाया; किन्तु आदर्श राजा रामचन्द्र के चित्त को ढाढ़स नहीं हुआ। प्रजा-रञ्जन के लिए उन्होंने अपना सुख-चैन त्यागकर वाल्मीकि के आश्रम में सीता देवी के छोड़ आने की आज्ञा लक्ष्मण को दी। भ्रातृ-भक्तिपरायण लक्ष्मण ने लाचार होकर रामचन्द्र के इस हुक्म की तामील करना स्वीकार किया।
तुरन्त सीता देवी के तपोवन जाने की तैयारी हुई। सीताजी मुनि-कन्याओं के लिए अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषण आदि लेकर प्रसन्न-चित्त से सुमन्त के रथ पर चढ़कर लक्ष्मण-सहित वन को चलीं। उनके जी में तो प्रसन्नता छा रही थी किन्तु दुर्भाग्य विकट हँसी हँसकर उनका उपहास कर रहा था।
धीरे-धीरे रथ गङ्गा-तट पर पहुँचा। गङ्गा-दर्शन कर लक्ष्मण का शोक-प्रवाह उछल पड़ा। यह देखकर सीता ने आश्चर्य से पूछा—"वत्स लक्ष्मण! तुम्हारे मुँह पर एकाएक इस प्रकार उदासी क्यों छा गई?" लक्ष्मण ने, किसी तरह बात छिपाकर, शीघ्र पार उतरने का बन्दोबस्त किया।
अचानक ही सीताजी का दायाँ नेत्र फड़क उठा। चारों ओर शून्य मालूम होने लगा। ऐसा जान पड़ने लगा मानो रामचन्द्र से सदा के लिए बिछोह हो गया। वे इसी सोच-विचार में पार उतरीं। गङ्गा-पार उतरने के साथ ही साथ सीताजी आनन्द-समुद्र के भी उस पार जा उतरीं।