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आख्यान]
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सावित्री

है। रानी! जीवन का प्रधान सुख बेटा-बेटी हैं। उनके न होने से कैसे गहरे दुःख में दिन कट रहे हैं, सो कह नहीं सकता। हृदय सदा अशान्ति की आग में जलता रहता है, राज-भोग में तृप्ति नहीं है, राज-काज में सुख नहीं है और शास्त्र के पाठ में चित्त नहीं लगता—चारों ओर अतृप्ति है। घोर अतृप्ति ने मेरे हृदय में घर-सा कर लिया है!" स्वामी के हृदय में गहरा दुःख देखकर सुशीला पत्नी खेद के महासागर में डूब गई।

उस दिन राजा बड़े ही दुःखित हृदय से राज-दरबार में गये। सभा में उपस्थित सभासद राजा के मुख पर चिन्ता की झलक देखकर उत्कण्ठा से देखने लगे कि वे क्या कहते हैं।

राजा ने सिंहासन पर बैठते ही कहा—सभासदा! मैं धीरे-धीरे बूढ़ा होता जाता हूँ; समय रहते कोई इन्तज़ाम न कर देने से यह सोने का राज्य शत्रु के हाथ में पड़कर चौपट हो जायगा। मैं निःसन्तान हूँ, इसलिए राज्य का अधिकारी किसको बनाऊँ—यह सोचकर व्याकुल हो रहा हूँ। हे त्रिकाल को जाननेवाले मुनियों! इस विषय में आप लोगों की क्या सलाह है?

राजा के इन खेद-भरे वचनों को सुनकर राज-दरबार पर निरानन्द के कारण उदासीनता छा गई। सभी लोग राजा के दुःख से दुखी हुए। मुनियों ने कहा—राजन्! आपके गौरव के सिंहासन पर जिस-तिस को बैठने की शक्ति नहीं है। अगर कोई इस सिंहासन को लोभ की दृष्टि से देखे तो निश्चय जानिएगा कि उसको, दीपक पर गिरते हुए पतंग की तरह, जल कर भस्म हो जाना पड़ेगा! महाराज हताश न हों; आपका बेटा ही इस महान् सिंहासन पर बैठकर आपकी प्रीति उपजावेगा और शङ्का मिटावेगा। हम लोगों की