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[दूसरा
आदर्श महिला

वर के नीले जल में कमल विकसे हुए हैं। वृक्षों की फूली हुई शाखाओं पर बैठकर कोयलें प्रेम से 'कुहू-कुहू' कर रही हैं। भौंरे फूलों पर बैठे रस लेते हुए गूँज रहे हैं। फूलों से लदी मालती-लता से घिरे आम के वृक्ष लाल रंग के नये पल्लवों से ज़रा झुक गये हैं। वसन्त की शोभा से प्रसन्न होकर राजा अन्तःपुर में गये।

धीरे-धीरे सन्ध्या हुई। अगणित दीपों की माला से राजमहल जगमगा उठा। दूर के देवमन्दिर से आरती का शब्द आने लगा। राजा सन्ध्या आदि से निपटकर विश्राम करने के कमरे में गये। रानी मालवी देवी स्वामी की सेवा के लिए वहाँ आकर बैठीं। राजा ने कहा—"रानी! तुमसे आज एक सलाह करनी है।" सलाह की बात सुनकर रानी कौतूहल से राजा के मुँह की ओर ताकने लगी। राजा ने कहा—देखो रानी! सावित्री सोलह वर्ष की हो गई। उसके अङ्ग अङ्ग में जवानी के लक्षण दिखाई देते हैं। शीघ्र ही उसका विवाह कर देना चाहिए। इसी सलाह के लिए तुमसे मैं कहता था।

रानी ने कहा—महाराज! सावित्री के विवाह की बात मैं आप से कहने को ही थी। सावित्री मनुष्यरूप में देवी है। आप शीघ्र ही किसी सुन्दर सच्चरित्र गुणवान् राजकुमार को ढुँढ़वाइए।

बेटी के विवाह के विषय में राजा-रानी में इस प्रकार की बातचीत हो ही रही थी कि इतने में, कौशेय वस्त्र पहने हुए, व्रत करनेवाली सावित्री ने आकर माता-पिता को प्रणाम किया। राजा अश्वपति ने बेटी को पास बिठाकर बड़े प्यार से कहा—बेटी! व्रत करने से तुम्हारा सुकुमार शरीर सुख गया है, रूखे स्नान से तुम्हारे बालों की स्वाभाविक शोभा जाती रही है। बेटी! ऐसा व्रत क्यों करती हो?

सावित्री ने पिता की बात सुनकर कहा—बाबूजी! व्रत और