अपनी ख़बर न रखनेवाली बेटी! सुनो। जवानी में स्त्री-पुरुष का परस्पर सम्मिलन विधाता का विधान है। इस पवित्र मिलन के लिए पृथ्वी पर जीवस्रोत एक तार से जारी है। पहले के बुद्धिमान् लोग नर-नारी के कर्त्तव्य में विवाह (अर्थात् स्त्री-पुरुष के सम्मिलन) को श्रेष्ठ बता गये हैं। बेटी! तुम क्या विधाता की उस पवित्र आज्ञा को तोड़कर हम लोगों को दुःख के समुद्र में डुबोना चाहती हो?
माता की बात सुनकर सावित्री और कुछ न कह सकी। मा-बाप के आग्रह से, और विशेष कर उन्हें दुखी देखकर, सावित्री ने संकल्प को स्थिर किया।
रानी ने लड़की के मन का भाव समझकर कहा—बेटी! रात बहुत गई, चलो सोवें।
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दूसरे दिन सबेरे राजा अश्वपति ने लड़की को कोमती पोशाक से सजाकर सखी, दाई और बूढ़े मंत्री सहित बिदा किया। माता-पिता के चरण छूकर सावित्री रथ पर सवार हो चल पड़ी। उसके मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे। किन्तु वह राजधानी से निकलकर प्रकृति के सौन्दर्य में भूल गई और दासी तथा सखियों से कितनी ही बातें पूछने लगी। दासी और सखियाँ, जहाँ तक बन पड़ा, उसका कौतूहल पूरा करने लगीं।
सावित्री अनेक देशों और अनेक राज्यों में घूम-फिरकर अन्त को एक तपोवन में आई। तब बूढ़े मंत्री ने कहा—राजकुमारी! यह तपोवन है; यहाँ अग्नि के तुल्य मुनि लोग रहते हैं। इसलिए यहाँ रथ की सवारी पर जाना उचित नहीं। इसलिए अब जो तपोवन घूमने की इच्छा हो तो रथ से उतर आइए।
तपोवन देखने के लिए ललचाई हुई सावित्री तुरन्त दाई और