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आख्यान]
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सावित्री

मुनि बहुत प्रसन्न हुए और राजकुमारी को देखने के लिए एक-एक करके राजर्षिद्युमत्सेन के आश्रम में आने लगे।

मुनियों की कन्याओं से धोरे-धीरे सावित्री का मेल-मिलाप हो गया। मुनि-कन्याओं की निर्मल मूर्त्ति देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई। सरल-स्वभाववाली ऋषि-बालिकाएँ सावित्री को साथ ले जाकर तपोवन की सैर कराने लगीं। वह हरा-भरा खुला मैदान, दूर तक फैला हुआ वन, बड़ी भारी गम्भीर पर्वत-माला और अनेक प्रकार के पक्षियों से गूंजती हुई पवित्र वन-भूमि देखकर सावित्री पुलकित हो गई। वह सोचने लगी कि यह सपने का खेल है या कोई अदृश्य अमरावती है या यह पवित्रता का छिपा हुआ वासस्थान है। अहा! ये सरल-हृदय की बालिकाएँ मानो पवित्रता की सजीव मूर्त्तियाँ हैं और आश्रम-वासिनी मुनि-पत्नियाँ मानो उन्मुक्त स्वाधीनता की जीती-जागती मूर्त्तियाँ हैं। यह सोचत-सोचते सावित्री के रोमाञ्च हो आया। वह सुध-बुध भूल गई।

सावित्री ऋषियों की बालिकाओं के साथ आश्रम में आकर मंत्री से तपोवन देख आने की बात कह रही थी, इतने में सत्यवान ने वहाँ आकर विनय-पूर्वक कहा—"हम लोग गृहत्यागी संन्यासी हैं; राजपरिवार के स्वागत करने योग्य कोई वस्तु हम लोगों के पास नहीं, यहाँ तक कि अन्न-जल भी राजोचित नहीं है। तो भी कृपा करके हम लोगों के यत्न से जुटाया हुआ और देवता का चढ़ाया हुआ जंगली फल-मूल ग्रहण कीजिए।" मंत्री आदि ने ऋषिकुमार की सरलता और दीनता पर प्रसन्न होकर उस प्रसाद को ग्रहण किया और अपने को धन्य माना।

तरह-तरह की बातचीत में दिन ढल गया। धीरे-धीरे सन्ध्या हुई। ऋषिकुमारगण आरती की तैयारी में लगे। होम की आग सुलगाई गई। ऋषिकुमार एक साथ सन्ध्या-वन्दन और एक स्वर से पाठ करने लगे। तपोवन की वह सन्ध्या-समय की शोभा, वनवासी पक्षियों