सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७६
[दूसरा
आदर्श महिला

का मधुर गान और ऋषिकुमारों का मनोहर सन्ध्या-स्तोत्र देख-सुनकर सावित्री का हृदय मानो किसी मायामय राज्य में पहुँच गया। नेत्र मूँदे हुए सत्यवान का मधुर वेद-गान सुनकर सावित्री सुध-बुध भूल गई। वह सोचने लगी कि ऐसा स्वर मनुष्य के कण्ठ से कभी नहीं निकल सकता। यह मेरे हृदय-राज्य के देवता का मधुर प्रेम-गीत है। पुलकावली छाई हुई आँखों से सावित्री सत्यवान के सुन्दर वदन को देखने लगी। सत्यवान की मुँदी हुई आँखों पर सावित्री के नेत्र ठगे से हो रहे। पलकों का परदा उठ गया। यह देखकर मंत्री प्रसन्न हुए। दाई ने भी देखा कि राजकुमारी की प्रेमदृष्टि सत्यवान पर जमी हुई है। सावित्री की सखियों ने भी उसका यह भाव देख लिया; किन्तु देवता की ओर टकटकी लगाये हुए योगिनी यह समझ नहीं सकी। वह तो दूसरे ही राज्य में थी।

सन्ध्यावन्दन के अन्त में सत्यवान ने राज-अतिथियों को भारती का दीपक दिखाया। जब वह भारती का दीपक सावित्री के पास पहुँचा तब सत्यवान का हाथ काँप उठा। सत्यवान की प्रेमपूजा के अर्घ्यपुष्प और भारती की ज्योति ने सावित्री को तृप्त करके उसकी रूप-राशि को जगमगा दिया।

मुनियों के मुँह से अनेक उपदेश और कथाएँ सुनते-सुनते सावित्री सो गई। दाई ने उसका बिछौना ठीक कर दिया। मंत्री आदि भी उचित स्थान पर सो रहे।

सबेरे उठकर सावित्री ने मुनियों और मुनि-पत्नियों को प्रणाम किया। मुनि-कन्याएँ सावित्री के, उस एक दिन के, सखित्व से मुग्ध हो गई थीं। उनका जी सावित्री को किसी तरह भी छोड़ना नहीं चाहता था। डबडबाई हुई आँखों से सावित्री तपोवन से बिदा हुई।

तुरन्त रथ लाया गया। सावित्री रथ पर चढ़ना चाहती थी, इतने