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आख्यान]
७७
सावित्री

में उसे याद आई कि ऋषिकुमार को तो प्रणाम किया ही नहीं। उसने झट सत्यवान के पास जाकर विनय-सहित काँपती हुई आवाज़ से कहा—देवता! मेरा प्रणाम लीजिए। मुनि-कन्याओं के विरह-दुःख से मैं अपने को ज़रा भूल गई थी; और कुछ न सोचिएगा।

सत्यवान कुछ कह नहीं सका। वह मन ही मन बोला—तुम्हारी इच्छा पूरी हो।

राजकुमारी की प्रेम से उपजी हुई इस त्रुटि को देखकर मंत्री सब समझ गये। उन्होंने हर्षित होकर राजकुमारी से पूछा—"अब किस तीर्थ में चलोगी?" सावित्री ने कहा—बहुत दिनों से माता-पिता के चरणों के दर्शन नहीं हुए। इसके सिवा आश्रम में घूमने से मैं बहुत थक भी गई हूँ। इसलिए अब और किसी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं। राजधानी को लौट चलिए।

मंत्री के आदेश से सारथि ने मद्रराज्य की ओर घोड़ा को चलाया।

[५]

राजा अश्वपति दरबार में बैठे हैं। विचार-प्रार्थी लोग हाथ जोड़े दूर खड़े हैं; साक्षात् धर्म के समान राजा अश्वपति न्याय के काम में लगे हुए हैं। इतने में प्रतिहारी ने आकर निवेदन किया—महाराज! प्रधान मंत्रीजी राजकुमारी-सहित लौट आये हैं। यह सुनकर राजा बड़े प्रसन्न हुए और प्रधान मंत्री के आने की बाट देखने लगे।

तुरंत ही प्रधान मंत्री ने आकर राजा को प्रणाम किया। राजा ने उचित आदर से मंत्री को निकट बुलाकर पूछा—"मंत्रिवर! सब कुशल तो है? बेटी सावित्री देश घूमते-घूमते थक तो नहीं गई?" मंत्री ने कुशल-मङ्गल कहा।

कुछ देर बाद राजा ने पूछा—"मंत्रीजी! जिस बड़े काम के लिए आप लोग देश घूमने गये थे उसका भी कुछ हुआ?" मंत्री ने