हर्ष के साथ उत्तर दिया—हाँ महाराज! राजकुमारी ने पति चुन लिया है। यद्यपि मैंने इस विषय में उनके मुँह से कोई बात नहीं सुनी तथापि देखा है कि एक नवयुवक को देखकर राजकुमारी ने उस पर प्रेम-लक्षण प्रकट किया है।
मंत्री के मुँह से यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए कि सावित्री ने पति चुन लिया है। उन्होंने पूछा—"मंत्रिवर! सावित्री ने जिस पर प्रेम प्रकट किया है उसका परिचय तो आप अवश्य मालूम कर आये होंगे।" मंत्री ने कहा—महाराज! राजकुमारी ने शाल्वराज्य के राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से प्रेम किया है। महाराज! सत्यवान सुन्दर युवा पुरुष है। उसके सुकोमल शरीर में ऋषि का वेष और ब्रह्मचर्य्य से उपजा हुआ लावण्य बड़ा ही सुन्दर लगता है।
यह सुनकर राजा ने राजकुमार सत्यवान के ऋषि-वेष का कारण पूछा। मंत्री ने कहा—महाराज! राजा धुमत्सेन अब बूढ़े हो गये हैं। कोई अठारह वर्ष हुए, उनका राज्य शत्रु ने छीन लिया। धुमत्सेन राज्य और दृष्टि खोकर, विपाशा नदी के किनारे, वशिष्ठ के आश्रम में तपस्या कर रहे हैं। राजर्षि द्युमत्सेन का इकलौता बेटा सत्यवान धनुर्वेद में ख़ूब चतुर है। उसके उन्नत शरीर, चौड़ी छाती, फैले हुए कन्धों, घुटनों तक लम्बी भुजाओं, चौड़े माथे और गठे हुए बदन में क्षात्र-धर्म के साथ ब्रह्मतेज अपूर्व शोभा देता है। महाराज! सब बातों में सत्यवान सावित्री के योग्य है, किन्तु दारुण दरिद्रता इस विषय में कुछ बाधा डालती है। तथापि यह सत्य है कि अमृत से भरे हुए समुद्र के किनारे कोई प्यासा नहीं रह सकता; कल्पवृक्ष के पास कोई दरिद्रता का कष्ट नहीं भोगता। महाराज! आप सावित्री को सत्यवान के हाथ सौंपिए।
मंत्री के मुँह से सत्यवान का वृत्तान्त सुनकर मद्रराज बहुत प्रसन्न