पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १७२ )

इतने अर्से में "गाड़ी छोड़ा" के गगनभेदी शब्द के साथ ही टिकट कलक्टर महाशय प्लेटफार्म पर जाने के फाटक पर आकर खड़े हुए। इन महाशय का रंग रूप दिखलाने से कुछ मतलब नहीं। जो साहब लोगों के से कपड़े पहन लें वे ही साहब, फिर यह ठहरे टिकट कलक्टर! कलक्टर, हाकिम जिला से इनके उहदे में एक शब्द अधिक है। वह अपने इलाके के राजा होने पर भी कानून के विरुद्ध एक पत्ता नहीं हिला सकते तब यह मुसाफिरों के मा बाप, कर्ता धर्ता विधाता। अस्तु। धक्कामुक्की से यात्रियों की जैसी खराबी मुसाफिर खाने में थी वैसी ही, उससे कहीं बढ़ कर यहाँ हुई। खैर! होनी थी सो हुई। उस दुर्दशा का वर्णन करने में कहीं पंडित जी यहीं पड़े रह जाँय और गाड़ी में उन्हें उगह न मिले अथवा उनके पहुँचते पहुँचते ही गाड़ी चल दे तो अच्छा नहीं, इसलिये जैसे तैसे उन्हें किसी न किसी तरह प्लेट फार्म पर पहुँचा ही देना चाहिए।

इसी संकल्प से एक महाशय ने भीड़ में से निकल कर पंडित जी से कहा―"इस गड़बड़ में आप लोगों का पार पाना कठिन है। आप चाहें तो मैं आपको सेकेंड क्लास के फाटक से होकर गाड़ी में जा चढ़ाऊँ।" वह बोले―"नहीं! जैसे बने वैसे हमको इसी फाटक से घुसना चाहिए। हमारे पास टिकट भी थर्ड क्लास के हैं।" उसने कहा― "थर्ड क्लास के हैं तो कुछ चिंता नहीं। उस फाटक में होकर