पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१८६

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भीतर जाने से आप का कुछ खर्च न होगा और जब मैं आपके साथ हूँ तों कोई आपको रोकेगा भी नहीं।" तब पंडित जी ने पूछा―"परंतु हम अनजान के साथ इतनी कृपा दिखाने से आप का मतलब?" वह बोला―"मतलब यही कि आप जैसे भले आदमी कष्ट से बचे (मन में―"प्रियंवदा की कोमल कलाइयाँ कहीं कुचल न जाँय")-इसके अंतिम शब्द यद्यपि किसी ने सुने नहीं, यद्यपि कोई उसके मुख के भाव से भी न जान सका कि इसकी नियत खराब है परंतु अब मन का साक्षी मन है, जब प्रियंवदा पहले पति से कह चुकी थी कि पराये के बुरे या भले हद्गत भाव को पहचान लेने की स्त्रियों में शक्ति होती है तब उसने अवश्य ही इसे पहचाना और पह- चानते हीं इसका माथा ठनका। उसने बहुतेरा चाहा कि "प्राणनाथ से हाथ पकड़ कर कह दूँ कि इस पारी के उप- कार के बोझ से लदना भी पाप है।" परंतु उसी के आगे उसकी नजर बचाकर न तो पति को सैन से समझाने का ही उसे अवसर मिला और न स्पष्ट कह देने की उसे हिम्मत हुई। बस इसलिये उसने लंबे घूँघट से मुँह छिपा कर उसकी ओर से मुँह फेर लेने के सिवाय जब कुछ भी न कहा तक पंडित जी के संगी साथी एक दम बोल उठे―"हाँ! हाँ! इसमें क्या चिंता है? इसमें क्या हानि है?" पंडित जी किली से ऐसी अनुचित सहायता पाने में प्रसन्न नहीं हुए परंतु उस समय सब की इच्छा को रोक भी न सके। इस तरह