और कहीं का रोड़ा और भानमती ने कुनबा जोड़ा।" बस सब को एक तंत्र से श्राद्ध कराया गया। इसमें बूढ़ा बुढ़िया भी शामिल किए गए। हमारे पाठक महाशय जो बंदर चौबे का संकल्प सुन चुके हैं उनके सामने घुरहू पंडित का संकल्प कहना केवल दुहराना है क्योंकि दोनों एक ही गुरु के चेले और एक ही शास्त्र के ज्ञाता थे । अस्तु घुरहु पंडित ने अपने इर्द गिर्द सब लोगों को वर्तुलाकार बिठला कर कभी अमरकोश के टूटे फूटे श्लोकों से धरती पर कुश डलवाए और कमी कहीं का श्लोक याद न आया तो यों ही झूठ मूठ गुनगुना कर उन पर पानी डलवाया और जब पिंडों का नंबर आया तो "आपने बाप को, उसके बाप को, दादा को, परदादा को, लकड़ दादा को, उसके बाप को उसके बाप को कह कह कर प्रत्येक पिंड के साथ एक एक ताली पीट कर बात की बात में एक एक डेढ़ डेढ़ सौ पिंडों का ढेर लगवा दिया, और प्रत्येक पिंड के साथ एक पैसा भेंट, एक रुपया आचार्य दक्षिणा, चार चार पैसे के दस दस गोदान और ऐसे ही अटरम सटरम पैसे इकट्ठे करने के बाद हाथों में फूलों की माला डाल कर सुफल बुलाने के लिये गुरु जी के पास भेज दिया। गुरु जी वास्तव में पूरे गुरु थे। गुरुआई के हथकंडे अच्छे जानते थे। उन्होंने कभी नर्मी और कभी गर्मी, कभी खुशामद और कभी रुखाई, कभी यजमानों के पुरखाओं की प्रशंसा और कभी ताना
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