पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२४९

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अपना भेद देने में बदनामी और कांतानाथ यात्रा में। बस इसलिये यह मन मार कर रह गई।

जो सुख के समय भूल कर भी भगवान को नहीं भजते हैं उनको विपत्ति ईश्वर के चरण कमलों की ओर ढकेल देती है। इस घोर कष्ट के समय, विपत्ति सागर में डूबने की बिरियाँ द्रोपदी की लाज बचानेवाले, गजेंद्र की रक्षा करनेवाले और बड़े बड़े महापापियो का उद्धार करनेवाले परमदयालु परमात्मा की उसे याद आई। याद आते ही उसने―

"हरि जू मेरो मन हठ न तजै। टेक।
निसि दिन नाथ देऊँ सिख बहु बिध करत स्वभाव निजै।
ज्यों युवती अनुभवति प्रसव अति दारुण दुख उपजै॥
ह्वै अनुकूल बिसारि शूल शठ पुनि खल पतिहि भजै।
लोलुप भ्रमत गृह पशु ज्यों जहँ तहँ सिर पदवाण बजै॥
तदपि अहम बिचरत तेंहि मारण कबहुँ न मूढ़ लजै।
हौं हायो करि यत्न विविध विध अतिशय प्रबल आजै॥
तुलसिदास वश होइ तबै जब प्रेरक प्रभु बरजै।"

यह पद गाया। गाते ही इसे बेटी की फटकार देने का साहस हुआ। अब इसने पक्का मनसूबा कर लिया कि "चाहे जान ही क्यों न जाती रहे पर एक बार लड़की को नर्मी गर्मी से समझाना और अब जब कभी मथुरा आवे तो उसे चोटी पकड़ कर निकाल देना। मेरा घर है। मैं घर की मालकिन हूँ। जिस पर मेरा मन न माने उसे भले घर की बहू बेटी के पास