पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/६३

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लना क्या सदा इस बात का प्रयत्न करती रहती थी कि कहीं जसका बोल भी उनके कानों तक न पहुँच जाय। भले घर की स्त्रियाँ इस बात में अपनी शोभा समझती हैं और शोभा है भी सही। केवल इतना ही क्यों? वह देवर से बातचीत करने और देवर देवरानी के समक्ष पति से संभाषण करने पर अपनी जेठानी की भी निंदा किया करती थी। और हिंदू समाज का नियम ही ऐसा है। जब हिंदु ललनाओं की हज़ारों वर्षों से ऐसी आदत पड़ रही है तब ऐसी निंदा पर मैं सुखदा को दोषी नहीं ठहरा सकता, किंतु जिस समय गालियाँ देने अथवा गालियाँ गाने का अवसर आता तब ऐसे विचारों को वह भूल जाती थी, लज्जा उसके पास से काफूर हो जाती थी। दिन भर उसके मुँह के आगे से यदि घूँघट टल जाय तो बात ही क्या, उसके सिर की साड़ी भी डर के मारे नीचे गिर जाय तो क्या चिंता। उसका सिर खुला, उसका मुँह खुला और उसकी अंगियाँ तक खुली, यहाँ तक कि वह अपनी कमर को बार बार यदि न सँभाला करे, यदि उसे हाथ से पकड़ना भूल जाय, तो शायद उसकी धोती भी धरती का चुंबन करके वह नये ढंग की "तिलोत्तमा" बनने में कसर न करे।

गालियाँ गाने में यह उस्ताद थी। जैसे सुशीला ने प्रियंवदा को पति को प्रसन्न करने के लिये अथवा जी बहलाने के लिये भक्तिरस और श्रृँगाररस की कविता करने का थोड़ा बहुत