पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/६७

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इस के यहाँ थोड़ी ही आई हो जो रूठ कर जाती हो। खुद बेहया है, और औरों को बेशर्म बतलाती है। टुकड़ैल कहीं की?" इस तरह बक झक कर जब वह सब स्त्रियों को रोक चुकी तब सच मुच ही झाडू लेकर अपनी जेठानी के सामने हुई। उसे मारा, उसकी धोती पकड़ खैंचने लगी और तब बोली―

"देखूँ तू कैसी पर्देदार है? आज दस लुगाइयों में तेरी इज्ज्त ही न विगड़ जाय तो मैं सुखदा काहे की? लुच्ची कहीं की! औरों से आँखें लड़ाने में, अपने (अपने पत्ती की ओर इशारा करके) खसम से हँस हँस कर बोलने में लाज नहीं और लुगाइयों की गालियाँ सुनने में इसकी इज्जत बिगड़ती है। लाज आती है तो कानों में कपड़ा ठूँस ले। राँड! टुकड़ैल! भिखारी माँ बाप की बेटी है ना? न जैसी आप बाँझ वैसी ही औरों को निपूती करना चाहती है। बाँझ के मुँह देखे का धर्म नहीं। वह राँड हत्यारी क्या खा गई मेरे बेटों को तू खाती जाती है रे मेरे कलेजे को! हाय मेरा पूत। जब तक यह डायन इस घर में रहेगी एक भी लाल हाय! लाल! न जियेगा।" इस तरह एक दो नहीं सैकड़ों गालियों के गोले बरसाने लगी। उसकी गालियाँ में जो निर्ल- ज्जता थी उसे निकाल कर सीधी सीधी गालियाँ ही यहाँ लिखी गई है। इसकी गालियाँ सुनकर प्रियंवदा चुप। इसका कपड़ा सिर को, सींने को, और मुँह को छोड़कर जब कमर