पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/७३

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वह विरला, किंतु एक तो स्टेशन ही छोटा सा फिर यहाँ यदि खाना मिल भी सके तो कितना और दूसरे जो एक दो खोमचे वाले हैं वे अपने पास की ताजी तो क्या बासी कूसी पूरियाँ तक बेंचकर दिवालिए बन गए हैं। घी का तो उनके पास काम ही क्या। जब घी ढाई सेर की जगह ढाई पाव का बिकने लगा है तब घी की पूरियाँ! घी की पूरियों का तो सुपना देखो परंतु मामूली तेल की–यदि बहुत हुआ तो खोपरे के तेल की पूरियाँ बनाने के लिये न तो वहाँ तेल है और न कसम खाने के लिये आटा। बस इसलिये सब ही लोग चिल्ला रहे हैं कि― "आज मौत आगई।"

"इस हड़ताल से, राम जाने रेलवे के नौकरों का कुछ लाभ होगा या नहीं परंतु हम मुसाफिर तो बे मौत मारे जाँयगे।" जब बड़े बड़े लोगों को जो लंबे लंबे लेख लिखने और लेकचर झाड़ने वाले हैं, इस तरह घबड़ा डाला है तब छोटे मोटों की क्या विसात! कोई रोता है, चिल्लाता है और हाय! हाय!! पुकारता है, तो कोई भूख के, प्यास के और धूप की तेजी के मारे बेहोश हो रहा है, सिसक रहा है। यदि किसी को हैजा हो गया है तो कोई लू लगने से व्याकुल है। चारों ओर से― "हाय! मरा! हाय मरी! अरे मेरे नन्हा! अरी मेरी लाली। हाय अब मैं क्या करूँगी! हाय मुझे कहाँ छोड़ चले? हाय मैं घर की रही न घाट की! हे प्राणनाथ अब मैं किसकी हो कर रहूँगी! हे भगवान मुझे भी मौत दे दे!" की