पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/९४

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इतना कहकर चौबे जी जब अनाप सनाप गालियाँ बकने लगे तब घाट पर जो सैकड़ों ब्राह्मण, भिखारी लूले, लंगड़े, अंधे, अपाहज जमा हो रहे थे उनमें से किसी ने कहा―"संकल्पं कर्म मानसम्" और तुरंत ही पंडित जी ने उत्तर दिया― "कर्मं मानसं―नहीं। कहनेवाला यदि पंडित हो तो वही आज से हमारा गुरु। उसी से सब कर्म करावेंगे। ऐसा मूर्ख पंड़ा हमें नहीं चाहिए।" सुनते ही वह भीड़ को चीरता हुआ वहाँ आ पहुँचा। पहुँच कर उसने कहा―

"कर्म हो आपकी इच्छा के अनुसार शास्त्र विधि से मैं कराने को तैयार हूँ परंतु गुरु आप इन्हीं को मानिए। बिचारे ब्राह्मण को जीविका मारी जायगी। यह दुराशिष देगा।"

"यह दुराशिष देगा तो हम भी शाप देंगे। ऐसे कर्मभ्रष्ट की दुराशिष ही क्या? आप के घर में जब तक विद्या रहे तब तक आप और आपके बेटे पोते हमारे गुरु! इस स्थिर जिविका ने, पीढ़ियों के बंधन ने ही हमारे धर्म का, देश का नाश कर डाला। विलायत वाले अपने पास अटूट धन होने पर, पीढ़ियों की बपौती जीविका होने पर भी विद्या ग्रहण कर दीनों का, देश का उपकार करते हैं और हमारे यहाँ के धनाढ्य, जमींदार, पंडे, पुजारी, संत, महंत, तीर्थ गुरु, विद्या पढ़ने के बदले कुकर्म में पैसा उठा कर यजमानों को लूटते हैं, फिर यदि कोई तीर्थों पर श्रद्धा भी रखना चाहे तो कैसे रख सकता है?"