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लहत परम पदपय पावन जिहि चहत प्रपंच उदासी॥
कहत पुरान रची केसव निज कर करतूति कला सी।
तुलसी बस हरपुरी का राम जप जो भयो चाहै सुपासी॥"

बूढ़े बुढ़िया चढ़ाई का नाम सुनते ही डर गए। उन्होंने पंडितजी से पूछकर टिकने के स्थान का रास्ता लिया। प्रियं- वदा चाहती तो पहले ही उनके साथ घर को जा सकती थी किंतु इधर बढ़ने की इच्छा और इधर थकावट का भय। इसे देखकर गोपीबल्लभ का भी जी ललचाया। पंडितजी और गौड़बोले के पीछे पीछे पचास चालीस सीढ़ियाँ ये दोनों चढ़े भी किंतु वे दोनों ऊपर जा पहुँचे और ये दोनों अधबिच से लौट आए। लौट आकार धरहरे के पास सायंकाल की कुछ झुरमुट सी में दोनों खड़े खड़े ऊपरवालों की राह देखने लगे। होनहार बड़ी बलवती है। यदि ऐसा न होता तो जगज्जननी जानकी को मायामृग मरवाले के लिये पहले पति को भेजने की और फिर देवर को ताना देने की क्यों सूझती! जब से उस नौकारूढ़ संन्यासी ने "समझ लेंगे।" कहा था तब से डर के मारे कमी प्रियंवदा पति का एक पल के लिये भी साथ नहीं छोड़ती थी। किंतु पतित्रता स्त्री के लिये जब पति चरणों का सबसे बढ़कर सहारा है तब यदि वह चढ़ जाने में ही थक जाती तो क्या होता? खैर हुआ वही जिसका भय था। राम जाने ले जानेवाले कौन थे और आए किधर से थे, किंतु चार लठैतों ने आकर पहले गोपीबल्लभ पर कंबल डाला।