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वहाँ खड़े होकर, कान लगाकर उसे सुनने का प्रयत्न करते हैं।
कदाचित् इसी से कुछ मतलब निकल आवे इस आशा से टूटे
फूटे शब्दों को जोड़ते हैं और फिर निराश होकर चल देते हैं।
इस तरह कई बार निराश होने के अनंतर गली के दोनों ओर से मकान की खिड़कियों में से मुँह निकाले हुए दो रमणियों के मृदु, मधुर और मंद स्वर आ आकर उनके कानों के पर्दों पर टकराने लगे। प्रथम तो काशीवालियों की बोल चाल, फिर चाहे लज्जा से अथवा भय से उनके शब्द ही अस्फुट और फिर पंडितजी नीचे और वे ललनाएँ आमने सामने दो मकानों की चौथी मंजिल पर। इस कारण उनकी बातचीत में से वह केवल इतना सा सुन पाए कि --
"चाँद का टुकड़ा है ... प्रियंवदा...... नाम भी बढ़िया है...... मर जाना मंजूर है......मानती नहीं......"
वे दोनों स्त्रियाँ न मालूम किस प्रियंवदा के बारे में बातें कर
रही थीं। क्या पंडितजी ने नगर दुहाई फेर दी थी कि उनकी
प्यारी के सिवाय किसी का नाम प्रियंवदा रखा ही न जाय
किंतु उन्होंने मान लिया कि -- "चर्चा मेरी प्रियंवदा ही के लिये है।"
बस इस भरोसे पर अत्यंत चिंता के अनंतर अपनी
इच्छित वस्तु पाकर जैसे आदमी हर्षविह्वल हो जाया
करता है वैसे ही वह भी हो गए। उस समय यदि
अंतःकरण को थोड़ा सा रोककर दोनों की बातचीत कुछ
और भी सुन लेते तो खोज करने में उन्हें कुछ सहारा मिल