पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१२

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(५)

सेन सकल तीरथ वर वीरा।
कलुप अनीश, दलन रणधीरा॥
संगम सिंहासन सुठि सोहा।
छत्र अक्षयबट मुनि मन मोहा॥
चमर जनमुन अरु गंग तरंगा।
देखि होंहिं दुख दारिद भंगा॥

दोहा -- सेवहिं सुकृती साधु सुचि, पावहिं सब मन काम।

बंदी वेद पुराण गण, कहहिं विमल गुण ग्राम॥

चौपाई -- को काहि सकै प्रयाग प्रभाऊ।
कलुप पुंज कुंजार मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुखसागर रघुबर सुख पावा।"

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आज इसी तीर्थराज में ऐसा घोर अनर्थ हो रहा है। इतने दिन सुन सुनकर हृदय काँपा करता था। जिस बात को कानों से सुना था उसे आज आँखों से देख लिया। देख- कर कलेजा दहल उठा। उसने जगह छोड़ दी। हाय! बड़ा गजब है। अब तक वह तस्वीर मेरी आँखों के सामने है।"

पंडितजी की इस तरह घबड़ाइट देखकर गृहिणी ने, भाई ने और गौड़बोले ने समय की महिमा, युग का धर्म बतलाकर उनका प्रबोध किया और इस तरह जब इन लोगों में धर्म का आंदोलन हो रहा था तब एकदम भिखारियों के