पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१२८

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"महाराज, आपने बड़ा उपकार किया! आपका कोटि कोटि धन्यवाद! आप वास्तव में नर-रूपधारी देवता हैं।"

"नहीं नहीं! ऐसा न कहो! मैं कुछ नहीं। मैं एक तुच्छ जीव हूँ। परमेश्वर की अनंत पूष्टि में एक कीटानुकीट हूँ।"

"धन्य! परोपकार पर इतनी नम्रता! परंतु महात्मा, यह तो कहिए कि इसका रूप ऐसा क्योंकर बन गया?"

"काशी कारीगरी का घर है। यहाँ भला और बुरा सब मौजूद है। नाव में घुँसा खानेवाले साधु-रूपधारी नर-राक्षस ने किसी कारीगर को तुम्हारी गृहिणी दिखाकर इसमें और उनमें जो कुछ थोड़ा बहुत अंतर था उसे रोगल लगाकर मिटवाया।"

"परंतु चहरा कैसे मिल गया?"

"ईश्वर की इच्छा! होनहार! और अव अच्छी तरह निहारकर देखो। (नसीरन से) जरा अपने मुँह को धो डाल!"

"हाँ, यह धेाया!"

"बेशक दिन रात का सा अंतर है! वास्तव में मुझे ररसी में साँप का सा भ्रम हुआ। धुंधली रोशनी में, परछाहीं की आड़ में मैंने प्रियंवदा समझ लिया। और उस पुरुष से आलिंगन करते देखकर ही मैं क्रोध से आग हो गया। बस क्रोध के आवेश से मेरा सारा विवेक जाता रहा। परमेश्वर ने ही आपको भेजकर मुझे कुकर्म से बचाया।" इतना कह- कर दोनों वहाँ से चल दिए।

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