पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१४

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थे, उसकी जान बन्धना मुशकिल था, बस इसलिये इन्होंने ग्रथाश्रद्धा गुरुजी को देकर उनसे खूब ताकीद कर दी कि --

"जो संडे मुसंडे हैं, हट्टे झट्टे हैं, जो और तरह से अपनी जीविका चला सकते हैं उन लोगों तक को देना हमारी सामर्थ्य से बाहर है। आपके यहां अनेक राजा, महाराजा, लखपती, करोड़पती आते हैं और उन्हें देते ही हैं। जब गरीबों की जीविका के मार्ग बंद होते जाते हैं, जब प्रजा को पाप से अकाल पर अकाल पड़ते हैं तब जब तक उनकी स्वतंत्र जीविका के नए नए मार्ग खोलकर उन्हें न लगाया जाय तब तक मैं इन्ह लेगों को देनेवालों की निंदा नहीं करता, जीबिकाहीन होकर यदि ये बिचारे भिक्षा न माँगें तो करें क्या? परंतु मुझ जैसे आदमी की ऐसों को देने की सामर्थ्य नहीं। और हाँ! जब प्रयाग की, भारतवर्ष की सब ही जातियाँ भिखारी बन रही हैं तब इन लोगों का भरण पोषण करना भी जरा टेढ़ी खीर है। इन लोगों ने संतोष छोड़कर, भगवान् का भरोसा छोड़कर, यात्रियों की श्रद्धा का सचमुच खून कर डाला। यदि इनकी कोई स्वतंत्र जीविका का शीघ्र ही प्रबंध न किया जायगा तो यात्रियों का आना कम हो जायगा, भगवान् न करे, किसी दिन बंद हो जाय। क्योकि घर पर धर्म की शिक्षा के अभाव से श्रद्धा का बीज प्रथम तो ऊसर भूमि की तरह कोंपल ही नहीं देता, फिर यदि दैवसंयेाग से कोंपल फूट भी आई तो आजकल की दूषित शिक्षा