पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१८७

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बेची जाती है, विलायती सामान का ट्रडेमार्क बदलकर देशी बना लिया जाता है अथवा देशी नामधारण कराकर विलायत से ही बनवा मँगवाया जाता है। जिन लोगों का सिद्धांत ही यह है कि झूठ के बिना व्यापार चल नहीं सकता उनके यहाँ यदि दूने, चौगुने, अठगुने दामों पर ग्राहक ठगे जावें तो अचरज क्या? माल में बेईमानी, तोल में बेईमानी, मोल में बेईमानी। जहाँ देखो वहाँ बस केवल -- "बेईमानी, तेरा आसरा!" जब देश की ऐसी खोटी दशा है फिर उन्नति का वास्ता क्या? कर्म तो हमारे रौरव नरक में जाने योग्य और स्वप्न देखे स्वर्ग जान का! यह एकदम असंभव है। तिस पर अपने ही पैरों से देशी व्यापार का इस तरह कुचलते हुए हम दोष युरोपियन लेागों पर डालते हैं। परंतु कहाँ है हममें उन जैसा स्वदेशप्रेम, कहाँ है हममें वैसी सत्यनिष्ठा और कहाँ है हमारी परस्पर की सहानुभूति? यदि हो तो हम उनसे कौन बात में कम हैं? भला हमें एक बार करके तो देखना चाहिए कि केवल सत्य के आधार पर व्यापार चल सकता है या नहीं? मेरी समझ में अवश्य चल सकता है। जो लोग सत्यप्रिय हैं उनका धंधा अब भी डंके की चोट चल रहा है। कोई करके देख ले। जरूर चलेगा। "बस एक भाव और नकद दाम" के सिद्धांत पर चाहे आरंभ में कुछ अड़चन पड़े क्योंकि जहाँ सब ही व्यापारी झूठे हैं वहाँ ग्राहकों को एकाएक विश्वास नहीं हो सकता परंतु जब थोड़े दिनों में