पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१९२

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"वास्तव में सच्चरित्रता का दिवाला निकला जा रहा है। इसका लोप अँगरेजों पर नहीं, हम दंशियों पर है। और उपाय भी हमारे हाथ में है। धर्म-शिक्षा के नाम पर लोग कानों के पर्दे फाड़ रहे हैं किंतु यह शिक्षा स्कूलों में, पाठशालाओं में, कालेजों में नहीं मिल सकती। थोड़ा बहुत भला भले ही हो जाय किंतु इस काम के लिये ये सब रद्दी हैं, निरर्थक हैं। इसकी शिक्षा का आरंभ गर्भाधान से होना चाहिए। अच्छे रज वीर्य से शुभ दिन में सच्चरित्र माता पिता का संयोग हो, उस दिन दंपती दुःख, चिंता, भय, भ्रम, क्रोध, मोहादि से रहित हों और गर्भ में बालक की सुखाद्य तथा सुपेय पदार्थों के सेवन से रक्षा की जाय, माता को विकारों से बचाया जाय। बालक पैदा होने पर पलने ही से, माता की गोद में से ही उसकी शिक्षा का आरंभ किया जाय। उसे बाहर के समस्त कुसंस्कारों से बचाकर वर्णाश्रम के अनुकूल शिक्षा कर, शास्त्र विधि से पोडश संस्कारों का संस्कारी बनाया जाय। ठेठ से उसे सत्यवादी, दृढ़प्रतिज्ञ, सज्जन, पापभीरू और भगवद्भक्त बनाया जाय। यदि इन सब बातों पर माता पिता का पूरा ध्यान रहे तो अवश्य बालक सच्चरित्र होगा। वह आत्मविसर्जन का व्रती होगा । उससे अवश्य परोपकार, देशोपकार होगा। बस ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है। फिर ऐसे बालक की रक्षा कुशिक्षा से, खोटी संगत से और बुरे संस्कारों से हो सके तो वह निःसंदेह