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(१५)


"मान तो स्त्रियों को ही शोभा देता है।"

"अच्छा मान लो कि मैं आपकी स्त्री ही हूँ।"

"खूब, तब आज से लहँगा पहनकर घर में रहिए।"

"और आप मर्द बनकर लुगाइयों को, नहीं नहीं लोगों को अपने नेत्रों का निशाना बनाते फिरिए।"

"बस बस! बहुत हुई! रहने दो तुम्हारी दिल्लगी। क्या मैं कुलटा हूँ जो लोगों को अपनी आँखों का निशाना बनाती फिरूँगी! क्षमा करो। गाली न दो।"

"नहीं! नाराज न हो। भला (अपनी ओर इशारा करके) इस घँघरिया की क्या ताब जो आप जैसे मर्द को नाराज कर सके! ( अपने हाथ से सज सजकर मर्दाने कपड़े पहनाते हुए) आप मर्द और मैं लुगाई!" कुछ लजाती, तिउरियाँ नचा नचाकर पति को हलके हलके हाथ से घकियाती कपड़ों को हटाती हुई -- "बस साहब, बहुत हुआ! खूब मर्द बनाया! हद हो गई!" कहकर ज्योंही प्रियंवदा ने "आप मुझे आदमी बनाते हो तो मैं भी आपको लहँगा पहना सकती हूँ" कहते हुए खूँटी पर से लहँगा उतारा और नीचे से -- "पंडितजी महाराज! किवाड़ा खेलियो" की आवाज आई। प्रियंवदा सिर पर से केसरिया साफा उतारती हुई कपड़ों को समेटकर भीतर भाग गई और पंडितजी ने गंभीर बनकर कुंडी खेलते हुए "आइए महाराज!" कहकर आनेवाले को गद्दी पर बिठलाया। घर के जो जो आदमी उधर इधर किसी