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न चढ़ेगी। अब वे लोग कमर बाँधकर अपनी संतानों को
विद्या पढ़ाने पर, धर्मशिक्षा देने को और संस्कृत की उन्नति
करने के लिये तैयार हुए। इसका यश वाचस्पति को मिला।
ईश्वर करे यह लेखक की कल्पना ही न निकले। यदि सच-
मुच इस तरह सुमार्ग में प्रवृत्ति हो जाय तो सौभाग्य!
अब इस पंडित पार्टी को गया से बिदा होने के सिवाय वहाँ कुछ काम न रहा। बस के लोग गाया गदाधर के दर्शन करके कृत्यकृत्य होते हुए विष्णुपद को साष्टांग प्रणाम करके अपने अपने पिता माता का स्मरण करते हुए वहाँ रहे रवाना हुए। पंडितजी के साथवालों में से किसी के मुख से यह निकल गया कि "अब पितृॠण से मुक्त हुए।" पंडितजी उस समय ध्यान में मग्न होकर अंतःकरण से शुद्ध, स्वस्थ और स्वच्छ पट पर याद की लेखनी से और विचार की स्याही से अपने माता पिता का भावपूर्ण चित्र लिख रहे थे। वह लिखते जाते थे, बीच बीच में मुसकुराते जाते थे और साथ ही प्रेमाश्रु बहाने तथा गद्गद होत जाते थे। अचानक उनके कानों पर यह भनक पड़ी। वह एकाएक चौंक पड़े। उन्होंने कहा --
"हैं किसने कहा कि पितृॠण से मुक्त हो गए। हाँ!
शास्त्र की मर्यादा से अवश्य मुक्त हो गए, शास्त्रकार यदि
ऐसी मर्यादा न बाँधते तो कोई श्राद्ध ही न करता। क्योंकि
बोहरे का रुपया चुकाने की ओर ऋणी की जब ही प्रवृत्ति
होती है जब उसे आशा हो कि किसी ना किसी दिन पाई पाई