पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/५६

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और नाम, दोनों ही कामाना, दाम से भी नाम अधिक, यही इनका मूलमंत्र था। बस इसलिये वो तीन विचार इनके ध्यान में और आए। एक सुरपुर के आस पास दस दस बीस बीस कोस तक के जो जुलाहे जीविका मारी जाने से कपड़ा बुनना छोड़कर केाई खेत खोद के और कोई साईसी करके पेट पालते तथा मजदूरी न मिलने से भूखों मर रंहे थे उन्हें बुलाकर "फ्लाई-शटल" से "हैंड-लूम" की मदद से कपड़े बुनवाना और दूसरे टौंक और मालपुरे के कारीगरों के अपने गाँव में रखकर उसे धूगी और नमदों के सिवाय नए नए औजार देकर "फेल्ट" टेपियाँ बनवाना, तीसरा और सबसे बड़ा, एक और भी संकल्प इनके चिन्त में चक्कर काटा करता था। रेलवे की नैकरी से राजपूताने के अनेक बड़े बड़े शहरों का इन्होंने खूब अनुभव कर लिया था, इस कारण इन्हें भरोसा था कि यदि काम छोड़कर वह दृढ़ पाए पर डाला जायगा तो उसमें सफलता हमारी चेरी है। काम यही कि देशी कारीगरी का विनाश हो जाने पर भी राजपूताने में वह अभी तक जो कुछ बची बचाई है उसे उत्तेजना देने के लिये अजमेर में केवल सौ रुपए के एक हज़ार हिस्से से एक कंपनी खड़ी की जाय। विशेष कर राजपूताने का और साधारण में भारतवर्ष का बना हुआ माल इकट्ठा करके उसे थोड़े नफे पर बेचना। यह अच्छी तरह जानते थे कि "आर्ट्स स्कूल" की बदौलत, अच्छी उत्तेजना मिलने से जयपुर में अब तक

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