पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१६२)

शालाएँ बनवानी पड़ती थीं । केवल इन्हीं की बदौलत, कंबल गुरुकुल ही कारण बिना खर्च के अथवा नाम मात्र का व्यय करके वह काम निकलता था जिसके लिये विश्वविद्यालयां में, कालेजों में, पाठशालाओं, अस्पतालों में आजकल करोड़ों ही खर्च किया जा रहा है। वह शिक्षा असली शिक्षा थी, उसमें लोकव्यवहार के साथ धर्माचार था, उसमें आडबर का नाम नहीं और यह केवल दिखावटी, धर्महीन और व्यवहारशून्य ! महाराज, मैं भी आपके फंसाना नहीं चाहता हूँ । आपके दबाकर मुझे स्वीकार कराना इष्ट नहीं है। जब आप प्रथम से ही दुनियादारी में नहीं पड़े हैं, जब अपने भाग की बिरियाँ योग ग्रहण कर लिया है तब आप भले ही इन झमेलों में न पड़िए । परंतु महात्या, अब समय वह आ पहुँचा है जिसमें आप जैसे त्यागियों को धर्मप्रचार के लिये, लोकोपकार के लिये त्याग का भी त्याग करना पड़ेगा। यदि आप चाहें तो इस पद को स्वीकार करने पर भी राजा जनक की तरह विरागी बने रह सकते हैं। आप जैसे जितेंद्रियों से, तपस्वियों से और महात्माओ से यह काम जितना हो सकता है उतना दुनियादार स्वार्थियों से नहीं, ढोल के अंदर पालवाले आडंबरी लेकचरों से नहीं। और इसकी आवश्यकता भी बहुत बढ़कर है ।"

"पिता ! आपका कथन वास्तव में हृदय में हलचल मचा देनेवाला है। निःसंदेह बड़ा असर करनेवाला है। हाँ !