पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/४१

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कभी शर्माती और कभी पछतावी, यहाँ निर्विन्न स्नान जाने से मुद्रित होती हुई बाहर निकली । ऐसे ही जब सब लोग स्नान कर्म से निवृत हो चुके तन पंडित जी बोले ----

"ओहो ! बड़ा गंभीर है। जिधर आँखें फैलाओ उधर मिलो तक, दृष्टिमर्यादा तक जल ही जल ! जया क्या है मानो जल का एक पहाड़ खड़ा है ! किनारे की भूमि के अवश्य ही नीचा होना चाहिए। नीचा है तब ही धुरी के अपनी ओर खैंचकर जलग्न नहीं कर देता किंतु इन धर्मचक्षुओं से पहाड़ के समान ऊँचा दिखलाई दे रहा है। यह नीचा हो चाहे उँचाई में आकाश तक ही क्यों न पहुँच जाय, यह देवताओं का पूज्य और नदियों का स्वामी भी क्यों न हो। ्र्र््र्र्््र्र््््र्र्र््र्र्््र्र्र्र््र्र्््र्और सूर्य भगवान् भी इसी से जल लेकर मेह झयों न बरसावे किंतु बड़ा ही मंद भी है। भगवान् के चरणों के निकट बस.. कर संसार सागर से पार कर देने वाले पादपघो का दर्शन नहीं पा सकता। शायद सागरत्व का इसे घमंड हुआ था। उस समय भगवान् रामचंद्र के बाणों की मार से इसकी अकल टिकाने आ गई थी। तीन चुल्लुआओं में महासागर का पान करके महर्षि अगस्त जी ने इसका अभिमान गुंजन कर दिया । और तो और एक शुद्राति हुई क्षुद्र पतों के अंडे तक को यह न बहा ले जा सका। मानो इस तरह यह पुकार पुकार कर कह रहा है कि एक अतुल ऐश्वर्यशाली, पदम परक्रमी और बलवान् होने पर भी जब ईश्वर के चरणों के दर्शन