पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/५२

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उसके दर्शन होते रहे, फिर जरा जोर मारने से होने लगे और एक क्षण भर से नील चक्र दृष्टि-मर्यादा से बाहर हो गया । उसने माने कह दिया कि "जाओ । इतने ही फर संतोष करे । जो पूंजी तुम्हें मिली है यदि' भक्तिपूर्वक उसकी वृद्धि करोगे तो वह भी कम नहीं है। परंतु पंडित जी ने जिसे एक बार पकड़ा उसे वे छोड़नेवाले नहीं। भगवत् चरखारविंद यदि सुकृत से, सौभाग्य से मिल जायें तो छोड़ने योग्य भी नहीं । पृथ्वी में, आकाश में, पाताल में, स्वर्ग में और उससे भी ऊपर गोलोक में परमेश्वर के पादपदो से बढ़कर कोई नहीं । बस इसलिये इन्होंने महात्मा सूरदासजी की ---

वांह छुड़ाकर जीत हैं, निबल जान कर भोंहि ।

हिरदा में सो जायगो, मरद वदौंगो ताहि ।।"

यह दोहा याद करके बस इसी बात के प्रयत्न में अपना मन लगाया। मन स्थिर होते ही जब इन्हें कुछ ढाढ़स हुआ। तब इनकी ऐसी ऐसी विचित्र चेष्टा को देखकर घबड़ाई हुई प्रियंवदा को इन्होंने धीरज दिया, गौड़बोले की उद्विग्नता मोटी और औरों को भी संतुष्ट किया। पाठकों ने समझ लिया होगा कि पंडित जी इसके पूर्व विह्वल हो गए थे। वास्तव में वह किसी लिये है। किंतु ये विह्वल और इसी लिये टिकिट लेने का काम गौड़बोले ने किया। वह भी घबड़ाहट में थे और रेल की पहली घंटी हो चुकी थी इसी लिये दंपती के लिये उन्होंने इंटर क्लास के टिकिट लेने की जगह थर्ड के