पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(६६)

में आकर, झूठभूल जाहिर कर दिया । मैं न तो उस रात अपने मकान में सोई और न कोई धमक्का सुना । नाराज होते होते चाहे ये दोनों मेरी जान ही क्यों ना ले डाले',आगे पीछे मुझे मरना ही हैं, अब जीकर कहाँ तक चक्की पीसती रहूँगी, परंतु सच कहती हूं । इस राँड़ मथुरिया का इन दोनो में ऐसा ही वास्ता है । मैं क्या कहूँ ? आपकी बदनामी इन तीनों की गोष्टी में हुई है। झूठ मानो तो इनसे पूछ देखो । इस पर उन दोनों ने अपना अपराध स्वीकर किया। कातांनाथ हें उनका अपराध अवश्य क्षमा कर दिया परंतु विर दरीवालों ने उनको, और बुढ़िया के जाति बाहर कर दिया । इसके अनंतर क्षय से, कोढ़ में, अन्न बिना तरस तरस कर उन लोगों की मौत हुई सो लिखकर किस्सा बढ़ाने की आवश्यकता नहीं ।