पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१०१

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सातवां परिच्छेद


लेती? यदि मैं ऐसा बोदा होता, तो फिर इतने बड़े काममें हाथ क्योंकर लगाता?"

लजायी हुई शान्ति दोनों हाथोंसे आंखें छिपाये और सिर झुकाये हुई कुछ देरतक बैठी रही। इसके बाद हाथ हटाकर उसने बूढ़े बाबापर एक तिरछी चितवनका वार कर कहा-"प्रभो! मैंने कुछ अपराध तो नहीं किया। क्या स्त्रियोंके हाथमें बल नहीं होता?"

सत्या०-"उतना ही, जितना गायके खुरमें जल समा सकता है।"

शान्ति-"आप क्या कभी सन्तानोंके बाहुबलकी परीक्षा भी लेते हैं?"

सत्या०-"हाँ, लेता हूं।” यह कहकर सत्यानन्दने एक और कुछ थोड़ेसे लोहेके तार लाकर शान्तिके हाथमें देते हुए कहा-"इस फौलादके धनुषपर इस तारकी प्रत्यञ्चा चढ़ानी होती है। प्रत्यञ्चा दो हाथकी होती है। प्रत्यञ्चा चढ़ाते चढ़ाते धनुष उछल पड़ता है, जिससे प्रत्यञ्चा चढ़ाने-वाला ही दूर जा गिरता है। इसपर जो सही सलामत प्रत्यञ्चा चढ़ा दें, उसे ही मैं बलवान् समझता हूं।"

शान्तिने उस धनुष और तीरकी भलीभांति परीक्षा कर कहा-"क्या सभी सन्तान इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके है?"

सत्या०-"नहीं, मैंने इसके द्वारा उनके बलका अनुमानमात्र कर लिया है।"

शान्ति-"कौन-कौन इस परीक्षामें उत्तीर्ण हुए हैं?"

सत्या०-"सिर्फ चार आदमी।"

शान्ति-"कौन-कौन? क्या मैं यह पूछ सकती हूं?"

सत्या०-"हाँ, कोई आपत्ति नहीं है? एक तो मैं ही इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका हूं।"

शान्ति-"और कौन कौन उत्तीर्ण हुए हैं?"