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आनन्द मठ

सत्या०-"जीवानन्द, भवानन्द और ज्ञानानन्द।”

यह सुन, शान्तिने धनुष और तार लेकर झटपट धनुषका रौंदा कस दिया और ब्रह्मचारीके चरणोंके पास रख दिया।

सत्यानन्द विस्मित, मीत और स्तम्भित हो गये। थोड़ी देर बाद बोले-“यह क्या? तुम देवी हो या मानवी?"

शान्तिने हाथ जोड़कर कहा, "मैं सामान्य मानवी हूं। पर हाँ, ब्रह्मचारिणी हूं।"

सत्या--"सो कैसे? क्या तुम बालविधवा हो? नहीं बाल-विधवाओंमें भी इतना बल नहीं होता, क्योंकि वे एक ही समय भोजन करती हैं।"

शान्ति-"मैं सधवा हूं।"

सत्या०-"तो क्या तुम्हारा स्वामी लापता है?"

शान्ति-"नहीं, उनका पता ठिकाना है और मैं उन्हींका पता पाकर यहां आयी भी हूं।"

सहसा सत्यानन्दके वित्तमें एक बात वैसे ही झलक आयी, जैसे मेघमालाको हटाकर एकाएक धूप निकल आये। उन्होंने कहा,-"अच्छा मुझे याद आ गया। जीवानन्दकी स्त्रीका नाम शान्ति था। कहीं तुम जीवानन्दकी ही स्त्री तो नहीं हो?"

नवीनानन्दने अपने मुँहको जटासे ढक लिया, मानो कमल-के फलोंपर हाथीकी सूंड़ फैल गयी। सत्यानन्द बोले-“तू यह पाप करने क्यों आयी?"

एकाएक अपनी जटाको पीठपर फेंक, शान्तिने मूंह उठाकर कहा-“प्रभो! पाप कैसा? पत्नीका स्वामीका अनुसरण करना क्या पाप कहलाता है? यदि सन्तानोंका धर्मशास्त्र इसे पाप बतलाता हो, तो यह सन्तानधर्म अधर्म है। मैं उनको सहधर्मिणी हूं। वे धर्माचरणमें लगे हैं, इसलिये मैं उनके धर्ममें सहायता करने आयी हूं।"

शांतिकी तेजभरी वाणी सुन, और उसकी बांकी गरदन,